वो मकान जिसे हम घर केहते हैं,
ऐसा हम सोचते हैं.…
पर इंतज़ार तो हम कर रहे है,
कुछ पल ख़ुशी से जीने का…
देखा है दुनिया की भीड़ में सुकून नहीं मिलता,
इसीलिए घर जैसा दुनिया में कोई आसरा नहीं मिलता…
एक सौ बीस साल पुराना वो मकान,
उन टपकती हुई बूंदों से ही तो खुशियाँ छलकती है…
और आँगन की मिट्टी जब हवा से उड़ती है,
सुकून की एक चादर जैसे उस धूल से बिछती है…
वो फर्श जिसपे गर्मियों में भी ठंडक मिलती है,
धरती पर यही ज़मीन है जो हमें सबसे ज्यादा अपनाती है…
दीवारों के रंग जो फीके पड़ चुके है,
जैसे बीता हुआ कल इन दीवारों में बसा हो…
वो खुशबू जो घर में हमेशा होती है,
बस वही खुशबू है खुशियों की,
वही खुशबू है सुकून की…!!!
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